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1. द्वादश भावों के क्रम का वैज्ञानिक विवेचन- पहला भाव जन्मभाव कहलाता है। मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घट
1. द्वादश भावों के क्रम का वैज्ञानिक विवेचन- पहला भाव जन्म
भाव कहलाता है। मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घटना उसका जन्म
है। जन्म से जो-जो वस्तुएँ मनुष्य को प्राप्त होती है उन सबका विचार प्रथम
भाव से होता है; जैसे- मनुष्य की जाति, रंग-रूप, कद, जन्म स्थान, जन्म
समय की बातें आदि। जन्म समय जातक को प्रभु कृपा से प्राप्त सर्वोत्कृष्ट
मनुष्य शरीर मिलता है, जिसके द्वारा द्वादश स्थान अर्थात् मोक्ष तक पहुँचता
है। इस यात्रा में उत्तरोत्तर विकास के लिए जिन-जिन वस्तुओं की मनुष्य को
आवश्यकता पड़ती है वे सब बीच वाले, दो से ग्यारह तक के भावों से
दर्शायी गई हैं। कुण्डली में विकास का क्रम है- मनुष्य शरीर तो मिल गया;
परन्तु शिशु को दूध मिले, खाद्य पदार्थ न मिलें तो शरीर चल नहीं
सकता। यही कारण है कि खाद्य सामग्री, कोष तथा धनादि का संबंध द्वितीय
स्थान से है। फिर बिना परिश्रम के न तो धन उत्पन्न होता है न टिक ही
सकता है, अतः तृतीय स्थान, परिश्रम, बल, बाहु आदि का है। शरीर,
धन तथा परिश्रम तभी सार्थक है जब कार्य करने की रुचि और भावना हो।
अतः भावनाओं, कामनाओं अर्थात् मन का भाव विकास क्रम में चतुर्थ रखा
गया है। व्यक्ति के पास शरीर, धन, परिश्रम, इच्छा शक्ति सब कुछ हो,
परन्तु यदि उसको कार्य-विधि का ज्ञान अर्थात् विचार शक्ति प्राप्त न हो तो
जीवन आगे नहीं चल सकता। अतः पंचम भाव (विचार शक्ति) को मन
(चतुर्थ) के अनन्तर स्थान दिया जाना विकास क्रम के अनुरूप ही है।
फिर शरीर, धन, परिश्रम, इच्छा शक्ति, विचार शक्ति सब कुछ हो,
• परन्तु यदि मनुष्य सांसारिक विरोधी शक्तियों, अड़चनों, कठिनाइयों में से
• वस्तुतः न निकल सके तो उसको कुशलता तथा सफलता नहीं प्राप्त हो
सकती, अतः षष्ठ भाव को कठिनाइयों, अड़चनों अर्थात् शत्रुता का स्थान
मानना मोक्ष प्राप्ति की योजना के अनुकूल ही है।
• परन्तु यदि मनुष्य में वीर्य शक्ति तथा दूसरों से मिलकर चलने की
इच्छा शक्ति न हो तो भी वह संसार में असफल समझा जायेगा। अतः जीवन
साथी, भागीदार, वीर्य आदि का विचार विकासोचित आधार पर सप्तम
भाव से किया जाता है। मनुष्य के उपरोक्त सभी गुण और मोक्ष प्राप्ति की
साधनाएँ निष्फल हो जाएँगी, यदि दीर्घायु न हो; अतः विकास क्रम में
आयु
का विचार अष्टम भाव से करना कहा है। हमारे शास्त्र आयु को धर्म की
देन समझते हैं। अतः नैतिक जीवन व आध्यात्मिक उन्नति ही दीर्घ जीवन
की गारण्टी है। अतः नवम स्थान धर्म का है। निस्वार्थ जीवन, यज्ञीय व
परोपकारमय कर्मों के बिना धर्म टिक नहीं सकता, अतः कर्म का स्थान
दसवाँ ठहराया गया। परन्तु यज्ञीय कर्मों को एक नैसर्गिक शुभता और निष्ठा
की हद तक पहुँचना; जहाँ शुभता स्वाभाविक हो जाये तथा पूर्णतया प्राप्त हो
जाये, प्राप्ति स्थान का काम है, अतः एकादश को प्राप्ति स्थान कहा है और
द्वादश तो परिणामस्वरूप मोक्ष अपवर्ग है। अतः धर्म मनुष्य के संसार में
आने के उद्देश्य को बताता है (भोगापवगार्थ दृश्यम् - योगशास्त्र ) तो
कुण्डली भी भावों के विकास क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।
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